Saturday, September 19, 2009

Ek din zindagi

Ek din zindagi aise mukam pe pahuch jayegi….

hamari dosti sirf yaadon mein rah jayegi….

har cup coffee yaad doston ki dilayegi….

haaste haste fir aankhein nam ho jayegi….

office ke chamber mein class-room nazar ayegi…

aur chahne par bhi proxy nahi lag payegi....

paisa to bahut hoga ae dost.…

magar usko lutane ki wajah hi kho jayegi….

jee lo khulke kyonki zindagi in palon ko fir se nahi dohrayegi…

बात बहुत मामूली है…..

रात तब नहीं होती जब अंधेरा आ जाता है,
रात तब होती है जब उज़ाला चला जाता है……
बात बहुत मामूली है…..इसिलिये तो खास है…..!

दर्द तब नहीं होता जब कोई भुला देता है,
दर्द तब होता है जब वो याद बहुत आता है……..
बात बहुत मामूली है…..इसिलिये तो खास है…..!

मैं तब नहीं थकता जब बहुत चल लेता हूँ,
मैं बहुत थक जाता हूँ जब खुद को अकेला पाता हूँ…
बात बहुत मामूली है…..इसिलिये तो खास है…..!

ज़ुल्म तब नहीं बढ़ता जब लोग बुरे हो जाते हैं,
ज़ुल्म तब बढ़ जाता है जब अच्छे लोग सो जाते हैं….
बात बहुत मामूली है…..इसिलिये तो खास है…..!

दादाजी

दादाजी और उनकी सायकल के पीछे
बच्चे दौड़ते थे,
झोपड़ी और बंगलेवालों के।
दादाजी की काली बड़ी देह,
दिनों पुरानी खिचड़ी सी दाढ़ी
और सीट के पीछे लटकती हुई
लम्बी लहराती कमीज़।
चौड़ा सफेद पायजामा पहने
वे पेडल मारते चले जाते,
उसी रास्ते,
दिन प्रतिदिन।

बच्चे खुशी से चीखते, चिल्लाते,
"दादाजी! दादाजी!"
और दूर दूर तक
उनका पीछा करते,
जब तक वे थक नहीं जाते,
और एक पैर पर सायकल टिकाकर,
अपनी जेब से रंग बिरंगी पपरमिंट
निकालकर बच्चों को देते।

उन्होंने फिर चलना शुरू ही किया होता,
अतृप्त, वे चीखते, "दादाजी! दादाजी!"
उन्हें चिढ़ाते हुए,
जब तक वे उनके घर से
बहुत दूर तक निकल नहीं जाते।

यह सब भूल गए
और बच्चे अपनी अपनी राह चले गए।
एक दिन अचानक मुझे दादाजी मिल गए,
एक पुरानी ढहती हुई झोपड़ी के सामने
चारपाई पर बैठे हुए।
मैं संकोच करता सा रुका,
"दा दादाजी," मैं हिचकिचाया।
उनके सीधी तरफ लकवा मार गया था
और वे मुझे सुन नहीं पाए।
अपना मुंह उनके कान के करीब लाकर
मैं कुछ ऊंचे से बोला, "दादाजी"

वे धीरे से रुकते रुकते
एक करवट मुड़े,
और एक लाल पपरमिंट
जेब से निकालकर
मेरे हाथ पर रख दी।

- अशोक गुप्ता

* * *

मैं जिन्दगी को जीना सिखाऊँगा !

मैं दो कदम चलता और एक पल को रूकता मगर,इस एक पल में जिन्दगी मुझसे 4 कदम आगे chali जाती,मैं फिर दो कदम चलता और एक पल को रूकता मगर,जिन्दगी मुझसे फिर कदम आगे chali जाती,जिन्दगी को jeet ta देख मैं muskurata और जिन्दगी मेरी mushkurahat पर hairan होती,ये silsila yuhi चलता रहा ,फिर एक दिन मुझको hasta देख एक sitare ने पुछा "तुम harkar भी muskurate हो ,क्या तुम्हे दुःख नहीं होता haar का?" तब मैंने कहा ,मुझे पता है एक ऐसी sarhad aayegi jaha से जिन्दगी तो क्या एक कदम भी आगे नहीं जा payegi और तब जिन्दगी मेरा intzaar karegi और मैं तब भी अपनी raftar से yuhi चलता रुकता wahan pahunchunga .........एक पल ruk कर जिन्दगी की taraf देख कर muskuraoonga,beete safar को एक नज़र देख अपने कदम फिर badhaoonga ,ठीक usi पल मैं जिन्दगी से jeet jaunga,मैं अपनी haar पर muskuraya था और अपनी jeet पर भी muskuraunga और जिन्दगी अपनी jeet पर भी मुस्कुरा पाई थी और अपनी haar पर भी मुस्कुरा पायेगी, बस तभी मैं जिन्दगी को जीना सिखाऊँगा

एक नज़्म

भीड़ में भी जब कोई तुम्हें तन्हा दिखाई दे ,
सबके साथ होकर भी जब कोई अकेला दिखाई दे |
हँसते ही जिसके दिखे एक समंदर सा दर्द का ,
देख जिसे लगे इंतज़ार में एक बुत अपने खुदा के ,
जिसकी सोच समझ जैसे खोई सी लगे ,
जिसकी बातों से ख़ुद तेरी तस्वीर बने ,
बस बिना खोए एक भी पल उसे ,
मेरा नाम लेके मिल लेना ,
वो मैं ना भी हुआ तो कोई ग़म नहीं ,
वो मेरे जैसा हो जाएगा ,
मैं ना सही कोई तो तुम्हे मिल जाएगा |
और अगर याद मेरा नाम भी तब ना आए ,
तो बस अपने नाम से पुकार लेना उसे ,
यक़ीन करो वो मैं हुआ तो एक पल में
पहचान लूँगा , तुम्हे फिर तुमसे माँग लूँगा |

आज, ना जाने क्यों ?

आज, ना जाने क्यों ?
थक गया हूँ जीवन की इस दौड में
कोई राह नहीं सामने दूर तक
इन उनींदी आँखों में नया जीवन चाहता हूँ
आज मैं रोना चाहता हूँ

भय था कभी विकराल
लडकपन था नादान
माँ का असीम प्यार
पिता की डाँट और दुलार
जून की दोपहरी में, छत पर वही बिछौना चाहता हूँ
आज मै रोना चाहता हूँ

नाना‍‍ नानी की कहानियाँ
दादा दादी की परेशानियाँ
भैया दीदी की लडाईयाँ
पापा मम्मी की बलाइयाँ
बस उन्हीं लम्हों में आज फिर खोना चाहता हूँ
आज मैं रोना चाहता हूँ

साथियों के संग होली का हुडदंग
बारिश में कागज की नाव दबंग
गर्मियों में छुट्टियों के दिन
स्कूल में सीखने की उमंग
अपने अकेलेपन में, वो टूटे मोती पिरोना चाहता हूँ
आज मैं रोना चाहता हूँ

कुछ कर गुजरने की चाह
सफलता की वो कठिन राह
मुश्किलों का सामना करने की
पापा की वो सलाह
आज फिर से वही सपने संजोना चाहता हूँ
ना जाने क्यों, आज मैं रोना चाहता हूँ

शायद कुछ छोड आया पीछे
आगे बढ़ने की हौड में
पीछे रह गये सब,
मैं अकेला इस अंधी दौड में
लौटा दो कोई मेरा बचपन, पुराना खिलौना चाहता हूँ
हाँ, आज मैं रोना चाहता हूँ

नहीं जानता कि कहाजाना है
क्या कुछ वापस पाना है
इस जीवन में मै
टूट बिखर चुका हूँ कब से
उन्हीं सुनहरे पलों में जी भर सोना चाहता हूँ
आज मैं, ना जाने क्यों, रोना चाहता हू

काँच की बरनी और दो कप चाय - एक बोध कथा

जीवन में जब सब कुछ एक साथ और जल्दी-जल्दी करने की इच्छा होती है, सब कुछ तेजी से पा लेने की इच्छा होती है, और हमें लगने लगता है कि दिन के चौबीस घंटे भी कम पड़ते हैं, उस समय ये बोध कथा, "काँच की बरनी और दो कप चाय" हमें याद आती है ।दर्शनशास्त्र के एक प्रोफ़ेसर कक्षा में आये और उन्होंने छात्रों से कहा कि वे आज जीवन का एक महत्वपूर्ण पाठ पढाने वाले हैं...उन्होंने अपने साथ लाई एक काँच की बडी़ बरनी (जार) टेबल पर रखा और उसमें टेबल टेनिस की गेंदें डालने लगे और तब तक डालते रहे जब तक कि उसमें एक भी गेंद समाने की जगह नहीं बची... उन्होंने छात्रों से पूछा - क्या बरनी पूरी भर गई ? हाँ... आवाज आई...फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने छोटे-छोटे कंकर उसमें भरने शुरु किये, धीरे-धीरे बरनी को हिलाया तो काफ़ी सारे कंकर उसमें जहाँ जगह खाली थी, समा गये, फ़िर से प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा, क्या अब बरनी भर गई है, छात्रों ने एक बार फ़िर हाँ.. कहा अब प्रोफ़ेसर साहब ने रेत की थैली से हौले-हौले उस बरनी में रेत डालना शुरु किया, वह रेत भी उस जार में जहाँ संभव था बैठ गई, अब छात्र अपनी नादानी पर हँसे... फ़िर प्रोफ़ेसर साहब ने पूछा, क्यों अब तो यह बरनी पूरी भर गई ना ? हाँ.. अब तो पूरी भर गई है.. सभी ने एक स्वर में कहा..सर ने टेबल के नीचे से चाय के दो कप निकालकर उसमें की चाय जार में डाली, चाय भी रेत के बीच में स्थित थोडी़ सी जगह में सोख ली गई...प्रोफ़ेसर साहब ने गंभीर आवाज में समझाना शुरु किया - इस काँच की बरनी को तुम लोग अपना जीवन समझो... टेबल टेनिस की गेंदें सबसे महत्वपूर्ण भाग अर्थात भगवान, परिवार, बच्चे, मित्र, स्वास्थ्य और शौक हैं, छोटे कंकर मतलब तुम्हारी नौकरी, कार, बडा़ मकान आदि हैं, और रेत का मतलब और भी छोटी-छोटी बेकार सी बातें, मनमुटाव, झगडे़ है..अब यदि तुमने काँच की बरनी में सबसे पहले रेत भरी होती तो टेबल टेनिस की गेंदों और कंकरों के लिये जगह ही नहीं बचती, या कंकर भर दिये होते तो गेंदें नहीं भर पाते, रेत जरूर सकती थी...ठीक यही बात जीवन पर लागू होती है...यदि तुम छोटी-छोटी बातों के पीछे पडे़ रहोगे और अपनी ऊर्जा उसमें नष्ट करोगे तो तुम्हारे पास मुख्य बातों के लिये अधिक समय नहीं रहेगा... मन के सुख के लिये क्या जरूरी है ये तुम्हें तय करना है अपने बच्चों के साथ खेलो, बगीचे में पानी डालो, सुबह पत्नी के साथ घूमने निकल जाओ, घर के बेकार सामान को बाहर निकाल फ़ेंको, मेडिकल चेक-अप करवाओ..टेबल टेनिस गेंदों की फ़िक्र पहले करो, वही महत्वपूर्ण है... पहले तय करो कि क्या जरूरी है... बाकी सब तो रेत है..छात्र बडे़ ध्यान से सुन रहे थे.. अचानक एक ने पूछा, सर लेकिन आपने यह नहीं बताया कि "चाय के दो कप" क्या हैं ?प्रोफ़ेसर मुस्कुराये, बोले.. मैं सोच ही रहा था कि अभी तक ये सवाल किसी ने क्यों नहीं किया... इसका उत्तर यह है कि, जीवन हमें कितना ही परिपूर्ण और संतुष्ट लगे, लेकिन अपने खास मित्र के साथ दो कप चाय पीने की जगह हमेशा होनी चाहिये